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Thursday, September 5, 2013

ब्लॉग प्रसारण : अंक 107

नमस्कार मित्रों,

आज के इस १०७ वें अंक में आप सभी का मैं राजेंद्र कुमार आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ। एक बार फिर मैं अपनी पसंद के कुछ चुनिंदा लिंक्स लेकर आपके समक्ष उपस्थित हुआ हूं।आशा है आप सब पहले की ही तरह अपना स्नेह बनाये रखेंगे,तो आइये एक नजर डालते है आज के प्रसारण की तरफ...




सतीश सक्सेना

तीन वर्ष की सज़ा मिली है,सत्रह साला दानव को ! 
कुछ तो शिक्षा मिले काश,कानून बनाने वालों को !
अरसे बाद, पड़ोसी दोनों, साथ में रहना सीखे हैं ! 
अदब क़ायदा और सिखादें,शेख मोहल्ले वालों को !


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सरिता भाटिया 

गुरु का आओ सम्मान करें, उनकी आज्ञा पालें ,
छात्र जीवन है कच्चा घड़ा, खुद को उन सम ढालें |
गुरु का आओ सम्मान करें, ज्ञान का वरदान लें ,
सही गलत की पहचान करें, कर्तव्य का दान लें

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सारिक खान 

सुनाई दर्दभरी शायरी, 
यकीन ना आया,
मसखरे शायर ने, 
दर्दीला कलाम सुनाया।

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प्रवीन मलिक 

ऐसा तो कुछ न माँगा था जो देना मुश्किल था
एक सुनहरी शाम बालकनी में हम दोंनों कॉफी पीते हुयेऔर दूर पहाड़ियों की तरफ ढलते सूरज को अलविदा कहते हुये साथ साथ वो सुनहरी शाम ही तो मांगी थी .....
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डॉ सतीशराज पुष्करणा

तूफ़ानों से क्या भागे
जो लेटा हरदम
शीत लहर के आगे
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सुमन 
मै ये हूँ, मै वो हूँ, उसकी कार से मेरी कार महँगी और बड़ी है, उसके बंगले से मेरा बंगला बड़ा है,उसके मठ से मेरा मठ बड़ा है, उसके चेलों से मेंरे चेले अधिक है …
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अनुपमा पाठक 


कई रास्तों से गुज़र लेने के बाद
फिर ढूंढ़े है मन
वही पगडंडियाँ
जहां से शुरू किया था सफ़र…
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प्रवीण पाण्डेय 

हमारी श्रीमतीजी को पर्यटन संबंधी पुस्तकें और आलेख पढ़ने में रुचि है। बड़े ही संक्षिप्त अन्तरालों में उनकी रुचि, रह रहकर अनुभव में बदल जाना चाहती है। न जाने कितने स्थानों के बारे में हम से कह चुकी हैं और हम हैं कि एक को भी मना नहीं किया है।

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संगीता स्वरूप


ये खुलती और बंद
होती खिड़कियाँ 
उन पर टंगी 
दो आँखें
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रश्मि शर्मा


आओ
कि‍ इससे पहले
जिंदगी झटक दे मेरा हाथ
और 
तुम्‍हारे बदले

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अज़ीज़ जौनपुरी

हम फ़कीरों की बस्तीसे आये हुए हैं 
दुआएँ मोहब्बत की लाये हुये हैं 
खुशियाँ ज़माने की हों हर को मुबारक 
चरागे मोहब्बत जलाये हुए हैं
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साधना वैद 


बाँध आँचल में सभी साधें अधूरी
मैं अकेली राह पर यूँ चल रही हूँ !
शुष्क वीराने में धर रंगीन चश्मा
खुशनुमां फूलों से खुद को छल रही हूँ !
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कैलाश शर्मा

सतगुण जन को सुख में अर्जुन
रजगुण कर्मों में संसक्त है करता.
और तमोगुण ज्ञान को ढककर 
जन को प्रमाद आसक्त है करता.
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अभी 


वो शाम बहुत ख़ास थी...आज उस शाम को बीते कई साल हो चुके हैं लेकिन अभी भी याद ऐसे ताज़ा है की लगता है वो बस जैसे कल की ही बात 

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आज के प्रसारण को यहीं पर विराम देते हैं,इसी के साथ मुझे इजाजत दीजिये,मिलते हैं फिर से एक नए उमंग के साथ अगले गुरुवार को हीं कुछ नये चुने हुए प्यारे लिंक्स के साथ।